आज शहर में फिर उठी एक बात है
मासूम से बदन पे एक अनचाहा हाथ है
एक हाथ जो सरकता है लोगों की आड़ में,
एक हाथ जो निकलता है बाज़ारों में, ट्रेनों में,भीड़-भाड़ में
वो हाथ जो नहीं मानता उम्र के फ़र्क़ को,
वो हाथ जो नहीं बख़्शता एक बच्ची को या वृध को।
गन्दा! भद्दा!
जो छूता नहीं सिर्फ़ शरीर को
आत्मा तक को छिल जाता है,
ख़ंजर की तरह धँसता है रूह में,
और रिसता हुआ एक ज़ख़्म छोड़ जाता है
कितनी देर नहाई थी, कितना रोई थी
उस दिन वो पानी के नीचे,
अंदर तक मर गई थी,
क्या मैली हो गई थी?
सोचती रही झूठी मुस्कान के पीछे।
एक आग लगी थी बदन में
ज्वालामुखी फटा था तन में
छोड़ बिस्तर, ज़मीन पर लेट जाती थी
भूलना चाहती थी, पर भूल नहीं पाती थी
रह-रह के महसूस होता था वो भद्दा स्पर्श
गर्म लगता था उसे वो ठंडा फ़र्श
एक जंग सी छिड़ी थी,
कितनी रातें यूँ ही जगी थी।
हिम्मत जुटाई, माँ से कहा सब
शायद वो समझ गयी थी उसका दर्द
बोली, ऐसा ही है इस समाज का मर्द
अच्छे से जानती हूँ मैं भी उस हाथ को
पहचानती हूँ मैं भी इस एहसास को
मेरी बच्ची!
मैं ही क्या, तू ही क्या
हर लड़की ने ये सहा है
हर लड़की ने ये दर्द, दूसरी से कहा है
तू पूछ लेना तबियत से किसी से भी
कही ना कही , कभी ना कभी
किसी कॉलेज, किसी स्कूल, किसी चौराहे पे
किसी पॉर्क, किसी बाज़ार, किसी दौराहे पे
ये हर लड़की के साथ हुआ है
मैं ही क्या, तू ही क्या, मेरी बच्ची
ये हर लड़की ने सहा है ।
रेंगता सा आता है वो तन पर , सताने के लिए
एक ज़ख़्म दे जाता है ज़हन पर, ज़माने के लिए
ऐसा ज़ख़्म, जो ताउम्र औरत भूल ना सके
जिये! पर फिर भी जी ना सके!
है ज़िन्दा वो, के अपनी बेटी से कह सके -
अरे ये कौन सी नयी बात है ?
जो मासूम से बदन पे एक अनचाहा हाथ है!
ये कौन सी नयी बात है ?
जो मासूम से बदन पे एक अनचाहा हाथ है!!
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